वकालत छोड़ उत्तराखंड के गाँव में पढ़ा रहे हैं Shreyans Raniwala
पढ़ाई पूरी करने के बाद Shreyans Raniwala को एक लॉ फर्म में अच्छे-ख़ासे पैकेज में जॉब मिल गयी| उनका पूरा परिवार socialwork से जुड़ा है, इसलिए वो भी समाज के लिए कुछ करना चाहते थे| इसलिए उन्होनें नौकरी छोड़ दी और पिछले एक साल से वो उत्तराखंड में अपनी सेवा दे रहे हैं| उन्होनें कुमाऊँ के 6 गाँव में एजुकेशन लाने का ज़िम्मा उठाया है| ये इलाक़े इतने कठिन है कि सरकारी टीचर भी यहाँ जाने से घबराते हैं|
एक गाँव से दूसरे गाँव जाने में 4 घंटे लगते हैं। बच्चे भी स्कूल नहीं जाते थे। लेकिन, उनकी मेहनत से इन गांवों के 120 से ज़्यादा बच्चे आज स्कूल जाने लगे हैं। इन स्कूलों में लाइब्रेरी भी बना दी गयी हैं, ताकि बच्चों को फ्री में किताबें मिल सकें|
कोटा के रहने वाले Shreyans Raniwala अहमदाबाद हाईकोर्ट में उस वक़्त प्रैक्टिस कर रहे थे, जब उन्हें किसी ने पहाड़ के बच्चों की एजुकेशन में आने वाली मुश्किल के बारे में बताया| उन्हें जब ये पता चला कि गाँव में स्कूल तो हैं लेकिन टीचर नहीं है क्यूंकी रास्ते इतने कठिन है कि कोई वहाँ नहीं जाना चाहता और जिन स्कूलों में टीचर हैं भी तो पढ़ाई पर ध्यान नहीं देते हैं, बच्चे भी स्कूल नहीं जाना चाहते हैं, तो उन्होनें वहाँ जाने का मन बना लिया| वो पिछले एक साल से गाँव में हैं और वहाँ के 6 स्कूलों के लिए काम कर रहे हैं| अब वो शिक्षा के लिए काम करने वाले एक फाउंडेशन के साथ भी जुड़ गये हैं| उन्हें honorarium के नाम पर महीने में 7 हज़ार रुपये मिलते हैं|
Shreyans ने बताया कि वो जब पहाड़ गए तो हालत ये थी कि दुर्गम रास्तों की वजह से बच्चे स्कूल ही नहीं आते थे। जिन टीचरों की पोस्टिंग हुई उन्होंने भी यहां ज्वाइन करने से ही मना कर दिया। उन्होंने कुमाऊं के 6 गांवों करनी, तला कुल्ला कर्मी, धारम, दोबार, शरण व बगड़ के स्कूलों में पढ़ाने का जिम्मा उठाया। इन गांवों का रास्ता इतना दुर्गम है कि एक से दूसरे गांव जाने में बाइक से 2 घंटे लगते हैं। इसके अलावा कम से कम 2000 मीटर की खड़ी चढ़ाई पैदल पार करनी पड़ती है। वो, एक गांव में एक हफ़्ता बिताते हैं और बच्चों, उनके माता-पिता और टीचरों को शिक्षा के महत्व के लिए समझाते हैं। अब छह गांवों में 120 से ज्यादा बच्चे पढ़ने आने लगे हैं। चार स्कूलों में लाइब्रेरी भी बना दी गयी है।
Shreyans Raniwala ने बताया कि संस्था की तरफ से उन्हें 7 हजार रुपये महीना दिया जाता है, लेकिन वो पैसों के लिए ये काम नहीं कर रहे हैं। ये उनका पैशन है। गांव वाले उन्हें गांधी फैलो के नाम से पुकारते हैं और वे उनके साथ ही खाना खाते हैं।
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